कल्ला जी राठौड़ का इतिहास | Kalla Ji Rathore History in Hindi

By Vijay Singh Chawandia

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कल्ला जी राठौड़ । चार हाथ वाले योद्धा श्री कल्ला जी राठौड़ ! राजस्थान को वीरों की जननी कहाँ जाता है। कहते है की यहाँ खून सस्ता है मगर पानी महँगा है। राजस्थान की भूमि में सैकड़ो वीर पैदा हुवे है, जिन्होंने अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु अपना सर्वोसर्व न्यौछावर कर दिया था। ऐसे ही वीर योद्धाओं में से एक थे श्री कल्ला जी राठौड़।

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कहा जाता है कि उन्होंने मुगलों की सेना से युद्ध के दौरान लाशों का अंबार लगा दिया था और तलवार लगने से गला कटकर अलग हो जाने के बावजूद उनके धड़ ने भी काफी देर तक शत्रु सेना का मुकाबला किया था। आज हम उनके ही जीवन पर प्रकाश ढाल रहे आशा है आपको पसंद आएगी हमारी जानकारी।

कल्ला जी राठौड़ जीवन परिचय और जन्म

वीरों की जन्मस्थली राजस्थान में जन्मे वीरवर परमपूज्य लोकदेवता श्री कल्ला जी राठौड़ का परिचय वैसे तो किसी को देने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इनकी वीरता और चमत्कार की गाथा घर-घर में गाई जाती है। कल्ला जी का जन्म विक्रम संवत 1601 ईस्वी में मारवाड़ रियासत के प्रसिद्ध मेड़ता नगर में हुवा था। इनके बचपन का नाम केसरसिंह जी था।

कल्ला जी राठौड़ के पिता का नाम राव अचलसिंह जी था जो सामियाना जागीर के राव थे। मारवाड़ की भूमि में जन्मे श्री कल्ला जी बचपन से ही सर्वगुण संपन्न थे। श्री कृष्णा की परम भक्त मीरा बाई जी के वंश में जन्मे कल्ला जी राठौड़ लोककल्याण हेतु सदैव तत्पर रहते थी।

कल्ला जी राठौड़ का इतिहास

मीरा बाई जी इनकी बुआ जी लगती थी। दंतकथाओं और इतिहास में दर्ज तथ्यों की माने तो कल्ला जी की माता का नाम श्वेत कँवर जी था, वह परम शिव भक्त थी। उन्होंने कड़ा तप करके भगवान शिव और पार्वती जी को प्रसन्न किया था, और वरदान स्वरुप आशीर्वाद के रूप में कल्ला जी को पाया था।

कल्ला जी राठौड़ की शिक्षा दीक्षा

वीरवर श्री कल्ला जी को बचपन से ही तलवार चलाने में निपुणता थी, कल्ला जी राठौड़ ने तीर कबाण, भाला और ढाल की उत्तम शिक्षा प्राप्त की थी। उनको अश्वारोहण और पैदल युद्ध की शिक्षा दीक्षा भी ग्रहण की थी। कल्ला जी को बचपन से ही प्रसिद्ध योगी भैरवनाथ जी से सामान्य शिक्षा के साथ ही योगाभ्यास, औषध विज्ञान तथा अस्त्र-शस्त्र संचालन में रूचि थी। कल्लाजी की कीर्ति सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैलती गई। वीरत्व और नेतृत्व के गुणों से वे अपने साथियों का सिरमौर कहे जाने लगे।

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अकबर का मेड़ता पर आक्रमण एवं कल्ला जी राठौड़ का मेवाड़ प्रस्थान

उस वक्त दिल्ली पर मुगल बादशाह अकबर का शासन था, और उसकी नजर मारवाड़ पर पड़ चुकी थी। अकबर अपनी साम्राज्य विस्तार नीति के तहत मारवाड़ की तरफ कुछ कर रहा था, किन्तु मारवाड़ की सीमा रक्षा मेड़ता के वीर योद्धा करते थे। जब कल्ला जी राठौड़ 22 वर्ष के थे, तब अकबर ने मेड़ता पर चढ़ाई कर दी। दोनों सेनाओ के मध्य घमासान युद्ध छिड़ गया।

इस युद्ध में कल्ला जी और उनके चाचा जयमल मेड़तिया जी ने अद्भुत युद्ध कौशल का परिचय दिया था, 13 दिनों तक युद्ध चलता रहा। किन्तु मुगलों की विशाल सेना के सामने मेड़ता की सेना बहुत दिनों तक युद्ध ना लड़ सकी। राव जयमल मेड़तिया समझ चुके थे की इस विशाल सेना के सामने अब टिक पाना मुश्किल है।

इसलिए उन्होंने कूटनीति से काम लेकर अपनी सेना और परिवार के साथ मेड़ता से प्रस्थान करना उचित समझा। मेड़ता की समस्त सेना और कल्ला जी राठौड़ सहीत जयमल जी ने चित्तौड़ की और प्रस्थान कर दिया।

कल्ला जी राठौड़ का इतिहास

कल्ला जी राठौड़ का चित्तौड़ आगमन

मेड़ता के वीर योद्धा कल्ला जी के साथ चित्तौड़ पहुँच जाते है। उस समय चित्तौड़ पर राणा उदयसिंह जी का शासन था, और राणा उदयसिंह जी मेड़ता के वीरों का पराक्रम भली भांति जानते है। उन्होंने कल्ला जी और बाकि सभी वीरों का भव्य स्वागत सत्कार किया।

धन्य जननी जनम्यो कुंवर कल्ला राठौड़
आन बान पर घर छोड्यो, आयो गढ़ चित्तौड़।

राणा उदयसिंह जी वीरवर कल्ला जी राठौड़ के कौशल और शौर्य से परिचित थे, इसलिए उन्होंने कल्ला जी को एक महत्वपूर्ण कार्य दिया। मेवाड़ के अहम भाग छप्पन परगना रनेला में विद्रोह के स्वर उठ रहे थे। राणा उदयसिंह ने कल्ला जी को वहाँ शांति कायम करने हेतु भेजा और सुचारू रूप से शासन चल सके इसलिए कल्ला जी को रनेला का जागीरदार घोषित किया गया।

कल्ला जी राठौड़ का राज्याभिषेक

मेवाड़ से निकलकर कल्ला जी और उनके सभी साथी योद्धा अपनी नविन राजधानी रनेला पहुंचे। रनेला में जनता ने अपने नवीन राजा का भव्य स्वागत किया। कल्लाजी का मधुर गीतों और ढोल व नगाड़ो की आवाज के मध्य राज्यभिषेक हुआ। कल्लाजी ने अपने राज्य में शांति कायम करने हेतु रनेला की आमदनी में बचत व राज्य की सुरक्षा से संबंधित दृढ़ व्यवस्था का कार्य किया।

कल्ला जी राठौड़ अपने राज्य की जनता का दुःख दर्द प्रतिदिन सुनते एवं उसका निवारण करने लगे। उस वक्त रनेला के पास भौराई तथा टोकर पालों में दस्युओं ने आतंक फैला रखा था। इनका नेता गमेती पेमला था। दस्युओं ने पड़ोसी गांवों की जनता का धन, अन्न, पशुधन की चोरी एवं कन्याओं का अपहरण कर ले जाते थे जिसे भौराई गढ़ में बन्दी बनाकर देह शोषण किया जाता था।

कल्ला जी राठौड़ का भौराई गढ़ पर चढ़ाई करना

एक दिन डाकूओं ने रनेला क्षेत्र से करीब दो सौ गाय – बैल आदि चुरा कर कर भाग गए। कल्लाजी ने जब दुःखी जनता का वृतान्त सुना तब कल्ला जी राठौड़ ने अपनी मर्यादाओं को ध्यान में रख कर व्यकितगत रूप से पेमला को समझाने हेतु पत्रवाहक के रूप में विजयसिंह को भौराई गढ़ भेजा लेकिन पेमला नही माना।

शूरवीर कल्लाजी ने अपने राज्य की जनता को पेमला के आतंक से मुक्त कराने के लिए भौराई गढ़ पर सेना सहित चढाई कर ली। इस युद्ध में स्वयं कल्लाजी, तेजसिंह, विजयसिंह, रणधीरसिंह सहित कई रनेलावासियों ने भाग लिया। इस युद्ध में स्वयं कृष्णकांता वीर वेष धारण कर बहिन चपला सहित सेना के साथ लड़ाई लड़ रही थी। कल्ला जी राठौड़ के सेनापति रणधीरसिंह ने पेमला सिर धड़ से अलग कर दिया। लगभग 4000 दस्यु और 500 राजपूतों की बलि लेकर रणचण्डी की तृप्ति हुई। इस प्रकार कल्लाजी ने अपने राज्य की प्रजा की पेमला दस्यु से रक्षा की।

भौराई गढ़ विजय के फलस्वरूप महाराणा उदयसिंह के द्वारा कल्लाजी को भौराई और टोकर क्षेत्र व सेनापति रणधीरसिंह को पेमला को सिर काटने के लिये राठौड़ा ग्राम पुरुस्कार स्वरूप दिया गया। इस प्रकार कल्लाजी ने छप्पन धरा के राव की उपाधि धारण की।

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वीरवर कल्ला जी राठौड़ का विवाह संस्कार

कल्ला जी राठौड़ का विवाह शिवगढ़ के कृष्णदास जी चौहान की राजकुमारी कृष्णकांता के साथ तय हो जाता है। कुछ समय पश्चात ही कुंवर कल्लाजी विवाह की निश्चित तिथि के दिन विवाह के लिए बारातियों सहित शिवगढ़ प्रस्थान करते है । कुंवर कल्लाजी दूल्हें की वेशभूषा धारण कर, सिर मोड़ बांधे कर, ढोल नगाडों की धूम के साथ अश्व पर सवार होकर बारात शिवगढ़ लेकर पहुचते है। जब तोरण के मंगलमय समय पर रनेलाधीश कल्लाजी तोरणोच्छेद के लिए तलवार उठाते है।

तभी मेवाड़ से सैनिक रण निमंत्रण लेकर आता है, और कहता है की चितौड़ पर अकबर ने विशाल सेना के साथ आक्रमण कर दिया है। चितौड़ पर संकट है। महाराणा और राव जयमल ने मेवाड़ की रक्षा के लिये युद्ध में तुरंत बुलाया है।

शूरवीर कल्लाजी ने महाराणा का बीड़ा ग्रहण कर कर्तव्य, स्वामिमान और मातृभूमि की पुकार सुन तोरण पर उठी तलवार पुन: खींच, वैभव, सुख, रूपसी राजकुमारी के ब्याह को छोड़ कल्ला जी राठौड़ राजकुमारी कृष्णकांता से वरमाला ग्रहण कर राजकुमारी को पुनः आकर मिलने का वचन देकर सेना सहित चित्तौड़ प्रस्थान करते है।

चितौड़ की रक्षा हेतु कल्ला जी राठौड़ का युद्ध

अकबर के आक्रमण की सूचना महाराणा उदयसिंह को युद्ध से पूर्व उनके पुत्र शक्तिसिंह से प्राप्त हो गई थी। जिस कारण महाराणा उदयसिंह ने बदनोर राव जयमल मेड़तिया को दुर्गाध्यक्ष और सेनाध्यक्ष नियत कर दुर्ग की रक्षा का सम्पूर्ण भार उन्ही को सौंप महाराणा उदयसिंह कुंभलगढ़ के सुरक्षित महलों में चले गये।

शूरवीर कल्ला जी राठौड़ अपनी सेना सहित चित्तौड़ दुर्ग में आकार सेनाध्यक्ष जयमल से मिले। दुर्गरक्षक वीर जयमल इनके आगमन पर अत्यन्त प्रसन्न हुए और वीर कल्ला जी राठौड़ को अपने साथ दुर्ग की रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया। वीरवर कल्ला, जयमल, पत्ता और ईश्वरदास आदि अपने प्राणों का मोह छोड़ कर अपनी दोनों भुजाओं से तलवार चलाते हुए देशभक्त, शूरवीर, सैनिकों एवं क्षत्रियों के साथ शत्रुदल पर भूखे शेर की भांति महाकाल बन कर टूट पड़े।

जब बादशाह ने देखा की किला आसानी से प्राप्त नही होगा तो उसने सुरंगे और साबात (यानी जमीन में ढ़के हुए मार्ग जिससे सेना किले की दीवार तक पहुंच सके) बनवाना आरम्भ किया। सुरंगे तलहटी तक पहुंच गई और उनमे 80 मन और दूसरी में 120 मन बारूद भरी गई। इनके छुटने से किले का बुर्ज उड़ गया और कई योद्धा हताहत हुए। परन्तु अब तक अकबर को युद्ध में सफलता नही मिली, अकबर के सैनिकों ने कई जगह किले की दीवारें तोड़ दी, परन्तु राजपूतों ने पुनः बना ली।

मेवाड़ का तीसरा जौहर और शाका

अकबर की सेना के बार – बार तोपों के आक्रमण से किले की कई दीवारें टूट चुकी थी। एक रात्रि जयमल टूटी हुई प्राचीर की मरम्मत मशाल की रोशनी में करा रहे थे, तब अकबर ने मशाल की रोशनी को देख अपनी “संग्राम” नामक बन्दुक से निशाना साध कर गोली चाला दी, जिसकी गोली राव जयमलजी की जांघ में लगी जिससे जयमल घायल होकर चलने लायक नही रह सके। दुर्ग में सेनाध्यक्ष जयमल के घायल होने से शोक की लहर छा गयी।

रात्रि में सभी क्षत्रिय व क्षत्राणियों ने एकत्र होकर शाही फौज का बढता हुआ दबाव, दुर्ग में गोला बारूद की कमी, भोजन की कमी और सेनाध्यक्ष के घायल होने कारण जौहर और शाका का फैसला किया। तारीख 24 फरवरी 1568 को 13000 राजपूत रमणियो और कुमारियों ने गंगा जल का पान कर, चन्दन लेप लगाकर और अपने परिजनों को अंतिम बार मिल कर गीता सार का स्मरण कर हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये हँसते – हँसते जौहर की अग्नि में समर्पित हो गई।

क्षत्रीयों ने दुर्ग के गौमुख में स्नान कर केसरिया बाना धारण कर गंगा जल का पान कर, सुंगधित इत्र का छिड़काव कर व गीता पाठ सुन दो हाथों में तलवार धारण कर विशाल प्रांगन में एकत्रीत हुए।

कल्ला जी राठौड़ | Kalla Ji Rathore
कल्ला जी राठौड़ का जयमल मेड़तिया को कंधो पर लेकर लड़ना

बड़े हर्ष और उमंग के साथ चित्तौड़ के साहसी योद्धाओं ने केशरिया वस्त्र धारण कर अमल पान किया। सेनाध्यक्ष राव जयमल ने सरदारों को अमल पान कराया। सेनाध्यक्ष के अन्तिम मनुहार को चित्तौड़ की सेना ने बड़े प्रेम और सत्कार से स्वीकार किया। अब राजपूतों के उत्साह की कोई सीमा न रही।

इस युद्ध में घायल सेनापति जयमल को लड़ते – लड़ते युद्ध में वीरगति प्राप्त करने की इच्छा थी। लेकिन गोली जयमल की जांघ में लगी थी। युद्ध करना तो दूर वे चलने –फिरने से भी मजबूर हो गये थे। तब वीर शिरोमणी कल्ला जी राठौड़ ने काका जयमल जी की पीड़ा को दूर करने के किये अपनी पीठ पर बैठा कर युद्ध करने का फैसला किया।

युद्ध में किले के कपाट खोलना

25 फरवरी 1568 की सुबह राजपूतों व क्षत्रियों ने दो हाथों में तलवार धारण कर और नर नाहर शूरवीर राठौड़ रणबंकेश श्री कल्ला जी राठौड़ अपनी दोनों हाथों में भवानी धारण कर 60 साल के काका जयमल जी को अपनी पीठ पर बैठा कर उनके दोनों हाथों में भवानी धारण करा कर मुगलों सेना पर भूखे शेर की तरह किले के विशाल कपाट खोल आक्रमण कर दिया।

क्षत्रियों ने जय एकलिंगनाथ, जय महादेव के नारों के साथ कई मुगलों को मार डाला वही श्री कल्ला जी राठौड़ व वीरवर जयमल जी का चतुर्भुज रूप रणभूमि में कही भी गुजरता वही को शत्रु सेना का मैदान साफ हो जाता। यह देख शत्रु सेना मैदान छोड़ भाग जाती थी।

बादशाह अकबर ने मुगल सेना को रणक्षेत्र से पीछे हटते देख राजपूतों पर मतवाले खूनी हाथियों को छोड़ दिया। अकबर ने अपने विशाल हाथियों की सूंड़ो में तलवारें की झालरें और दुधारे खांडे बंधवाई। मधुकर हाथी को सर्वप्रथम आगे बढ़ा कर पीछे जकिया, जगना, जंगिया, अलय, सबदलिया, कादरा आदि हाथी को बढ़ा दिया।

इन हाथियों ने राजपूतों का घोर संहार करना आरम्भ कर दिया, लेकिन वीर क्षत्रिय राजपूतों कहा मानने वाले थे। वे भीषण गर्जना कर विशालकाय हाथियों पर खड्ग लेकर टूट पड़ते।
“बढ़त ईसर बाढ़िया बडंग तणे बरियांग
हाड़ न आवे हाथियां कारीगरां रे काम”

इस बीच कई राजपूतों ने मतवाले हाथियों से लड़ते – लड़ते वीरगति प्राप्त की। जिसमे से वीर ईश्वरदास ने असंख्य हाथियों का संहार कर मातृभूमि के चरणों में बलिदान दिया। वही महापराक्रमी पत्ता सिसोदिया रामपोल पर एक हाथी ने उन्हें पकड़ कर जमीन पर जोर से पटक दिया। वही पत्ता सिसोदिया ने वीरगति प्राप्त की।

“सर्वदलन” नामक हाथी जो एक राजपूत सैनिक को सूंड में पकड़ उठा लिया यह देख सुर शिरोमणी कल्ला जी राठौड़ ने तलवार के एक भीषण प्रहार से उस विशालकाय हाथी की सूंड काट दी। हाथी वही धराशायी हो गया। वह राजपूत सैनिक भी उठ खड़ा हुआ।

वीरवर कल्ला जी राठौड़ का वीरगति ( कमधज ) होना

मुगल सेना पुरे जोश के साथ राजपूतों का मुकाबला कर रही थी। इस भंयकर युद्ध में सैकडों घाव लगने पर राव जयमल का शरीर निश्चेष्ट हो गया। उनको भैरोंपोल के पास ही भूमि पर रख कर कल्ला जी राठौड़ पूरे वेग से शत्रुओं की और झपटा। तभी वीर कल्ला जी तलवारें चलाता हुवे युद्ध कर रहा थे की एक मुगल ने पीछें से तलवार चला कर वीर कल्ला जी राठौड़ का सिर काट दिया।

अब बिना सिर के कल्लाजी का कंबध (कमधज) घोर संग्राम करता हुआ दोनों हाथों से तलवार लिये मुगलों की फौज को चीरता जा रहा था। भला इस कंबध को रोकने की शक्ति किसमें थी। शाही फौज रास्ता छोड़ कर खड़ी हो गई। कल्ला जी का कंबध योग व देवी शक्ति और गुरु आशीर्वाद से कृष्णकांता की याद में आधुनिक मंगलवाड़, कुराबड़, बम्बोरा जगत और जयसमन्द होता हुआ रनेला जा पहुंचा।

राजकुमारी कृष्णावती का कल्ला जी राठौड़ पर सति होना

शिवगढ़ में राजकुमारी कृष्णकांता ने तपोबल एवं विशुद्ध स्नेहाकर्षण शक्ति से यह अनुभव कर दिया की कल्ला जी राठौड़ ने मेवाड़ रक्षार्थ अपना शीश मातृभूमि को अर्पण कर दिया है, और अपने दिये हुये वचन के कारण मुझसे मिलने आ रहे है। तब कृष्णकांता सोलह श्रृंगार कर बहन चपला के संग शिवगढ़ से विदा लेकर रनेला की ओर बढ़ने लगी।

कल्ला जी राठौड़ का इतिहास
महासती कृष्णकांता जी कल्ला जी राठौड़ के सति होते हुवे

कृष्णकांता प्रिय मिलन को आतुर होकर दुल्हन के रूप रनेला जा पहुंची। रनेला में कल्लाजी का कबंध नीले घोड़े पर सवार होकर दो हाथों में तलवार लेकर आया। वीर शिरोमणी कल्ला जी राठौड़ ने राजकुमारी को दिये हुये वचन को पूरा करता हुआ रनेला की पावन धरा पर अपना मानव देह त्याग दिया।

विधिवत चन्दन की चिता तैयार की गई। राजपुताना परम्परा के अनुसार कृष्णकांता ने सती होने के लिये कल्लाजी का कबंध को गोद में लेकर चिता में विराजमान हो गई। हाथ जोड़ राजकुमारी ने मन ही मन भगवान को स्मरण किया की मेरे स्वामी का सिर मुझको प्राप्त हो। राजकुमारी के सतीत्व की शक्ति से कल्ला जी राठौड़ का सिर भैरवनाथ व देवीय शक्ति की कृपा से उनकी गोद में आ गया। तब कल्ला जी राठौड़ को शीश कबंध से जोड़ विक्रम संवत 1624 (26 फरवरी 1568) में कल्ला जी राठौड़ के भाई तेजसिंह ने ईश्वर का स्मरण कर चिता में आग लगा दी।

कल्ला जी राठौड़ की छतरी
कल्ला जी राठौड़ की छतरी

इस प्रकार वीर शिरोमणी कल्लाजी और महासती कृष्णकांता का प्रेम आज पुरे विश्व में अमर हो गया। महावीर कल्ला जी राठौड़ व वीर अग्रणी जयमल मेड़तिया की विमल स्मृति एवं निर्मल कीर्ति बनाये रखने के लिए चित्तौड़ किले के भैरोंपोल में जहा कल्ला जी राठौड़ का शीश कटा तथा जहा जयमलजी ने वीरगति प्राप्त की वहा इनकी दो छतरी बनी हुयी है।

नोट – कल्लाजी का यह जीवन परिचय कल्ला जी राठौड़ के जीवन पर आधरित धनश्याम सुखवाल के द्वारा रचित वीर कल्ला राठौड़ और महेंद्रसिंह सिसोदिया के द्वारा रचित राष्ट्ररक्षक (शूरवीर कल्ला जी राठौड़) नामक पुस्तकों से लिया गया है।

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Vijay Singh Chawandia

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